नई प्रजातियाें के बीज, तकनीक की कमी से तबाह हुई बुंदेलखंड में खेती

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लखनऊ। अस्सी साल के किसान चंदेलाल ने बुंदेलखंड के कई सूखे देखे हैं। वो याद करते हैं कि जब वो जवान थे तो खेती की हालत इतनी बुरी नहीं थी। लेकिन बातों-बातों में उन्होंने 2004-06 के दौरान खेती में हुए एक महत्वपूर्ण बदलाव की बात कही। उस समय बुंदेलखंड के किसान ने देश के अन्य हिस्सों की तरह गेहूं की ज्यादा उपज वाली नई प्रजातियों की खूब बुवाई शुरू कर दी, जिसकी सिंचाई के लिए क्षेत्र में उपयुक्त पानी ही नहीं था। इसी दौरान दालों का गढ़ रहे बुंदेलखंड ने दलहन की खेती घटा दी।

चंदेलाल द्वारा बताए गए खेती के इस बदलाव ने तब से अब तक लगभग एक दशक में बुंदेलखंड की खेती को कर्ज के न खत्म होने वाले चक्रव्यूह में फंसाकर, उसे हाशिए पर धकेल दिया। इस दौर में सरकारों ने तो आंखे बंद कर रखीं ही थीं। देश के कृषि अनुसंधान जगत ने भी इतने बड़े क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार किया। इस बात को  गाँव कनेक्शन को दिए गए साक्षात्कार में देश में हरित क्रांति के जनक एमएस स्वामिनाथन ने भी माना। 

एमपी के बुंदेलखंड क्षेत्र के छह जिलों में से एक टीकमगढ़ के चचावली गाँव में रहने वाले किसान चंदेलाल ने बताया, “हम हमेशा से देशी कटिया गेहूं बोते थे, जिसमें एक पानी भी मिल गया तो काफी है। लेकिन उसमें उपज कम होती थी, फिर नया वहीं 2004 के आस-पास नया गेहूं चल पड़ा। सब कहें बड़ी बंपर पैदावार होगी, तो सबने लगाना शुरू कर दिया। उसमें पानी ज्यादा चाहिए था तो सबसे पानी में पैसा लगाया।”

रबी में होने वाला कटिया गेहूं, इस अनाज की पुरानी प्रजातियों में से है, जिसकी खेती क्षेत्र में बहुत प्रचलित थी। लेकिन एक दशक पहले देश में नए प्रजाति के गेहूं में ज्यादा मुनाफा दिखने से देश के अन्य हिस्सों की तरह ही बुंदेलखंड के किसानों ने भी अच्छी पैदावार देने वाले नए उन्नत गेहूं को उगाना शुरू कर दिया।

“उपज अच्छी मिल जाती थी, और सरकारी रेट भी तय था तो किसान को उसमें (नया गेहूं उगाने में) ज्यादा बल दिखा। इधर सूखे से तो चौमासी (मानसून की खरीफ फसल) भी बिगड़ी थी उस समय,” चंदेलाल के भाई भगवान दास (65 वर्ष) ने बताया।

नए गेहूं में कटिया के विपरीत तीन से चार सिंचाई की ज़रूरत पड़ती थी। यह फसल मानसून की नहीं जाड़े की थी और क्षेत्र में पहले से ही सिंचाई साधन नहीं थे, ज्यादातर खेती मानसून पर आधारित थी। किसानों ने सिंचाई के लिए बोरवेल जैसे संसाधनों में पैसे खपाए। जिनके पास पैसे नहीं थे उन्होंने कर्ज़ लेकर या तो सिंचाई के साधन जुटाए या फिर किराए पर सिंचाई शुरू की। शुरुआति सालों में किसान को जब अच्छा मुनाफा मिला तो वो नए गेहूं के मुनाफे के नशे में ही गहरा डूबता चला गया। साथ ही अपना कर्ज़ भी बढ़ाता गया। फसलों की विविधता खो दी। एक समय पर क्षेत्र की जान रही दाल की खेती घटा दी। यह अंतर सरकारी आंकड़ों में भी साफ दिखता है।

बुदेलखंड की खेती के इस विधवंसक बदलाव को एमपी-बुंदेलखंड की निवाड़ी तहसील के चचावली गाँव के किसान सुखदयाल कुशवाहा (70 वर्ष) ने भी अपने आंखों के सामने घटते देखा। वो कुछ फसलों के नाम गिनाते हुए बताते हैं, “चौमासी में ज्वार, मूंग, मक्का, तिल, अमई, फिकार ये सब इतनी फसलें होती थीं, बारिश के पानी में ही हो जाती थीं, सिंचाई की लागत नहीं थी। लेकिन अब खोजो जाकर जो चौमासी में इतनी फसलें मिल जाएं। सब गेहूं-गेहूं के चक्कर में भागने लगे,” कुछ पल को चुप रहकर वो बुंदेली में आगे बोले, “गेहूं भी नहीं रहा था, यहां तो सब उसे सोना-सोना कहने लगे थे”।

इस अंधी दौड़ में यहां के किसान ने कुछ सबसे अहम चीजें खो दीं। पहली ये कि गेहूं की खेती के ‘नकदी फसल’ बन जाने के कारण खरीफ — जो अरसों से यहां की सबसे कम लागत में होने वाली मुख्य फसल रही थी — दोयम हो गई। दूसरा घाटा बुंदेलखंड ने यह झेला कि बिना मानसून गेहूं को पानी देने के लिए अंधाधुंध दोहन के चलते भू-गर्भ जल — जो कुंओं के ज़रिए यहां की खेती का मुख्य स्रोत है– उसे गर्त में पहुंचा दिया। कहीं-कहीं तो 100 फुट से भी नीचे। 

बुंदेलखंड ने गेहूं की खेती के लिए दालों की खेती का भी बहुत बड़ा क्षेत्र कुरबान कर दिया। जाड़े की रबी फसल में कम पानी में जो चना व मटर जैसी दालें हो जाती थीं, उनका रकबा किसान ने घटा दिया है। इनसे खली हुई ज़मीन पर और गेहूं बोया।

हालांकि किसान का पक्ष है कि ऐसा उसने इन फसलों में बढ़ रहे कीटों-रोगों व नीलगाय से होने वाले नुकसान के चलते किया। “दालों के साथ दिक्कत ये है कि फसल बड़ी कमजोर होती है। जरा सा भी कुछ हो जाए तो बर्बाद। हमारे यहां एक तो नीलगाय इतनी हैं कि दालें होने नहीं देतीं,” चचावली गाँव के किसान पुत्ती लाल (65 वर्ष) ने  आगे बताया, “अरहर भी पहले बहुत होती थी लेकिन उसका ये था कि चौमासी (खरीफ) में बुवाई करो और जाड़े (रबी) में काटो, किसान गेहूं भी नहीं ने पाता था, तो उसकी खेती कर दी”। अब स्थिति यह है कि पिछले दो साल लगातार सूखा पड़ने के कारण खरीफ में कोई फसल नहीं हो पाई।

पानी न बरसने से भूमिगल जल भी रिचार्ज नहीं हुआ वहीं दूसरी ओर जाड़े की गेहूं की फसल के लिए बैंक और साहूकार से कर्ज ले-लेकर बोरिंगें गहरी होती गईं, सिंचाई में पैसा झोंका जाता रहा। उपज जो मिली भी उससे ज्यादा कर्ज तैयार खड़ा। हज़ारों किसानों ने तो हारकर ज़मीन में कुछ नहीं बोया, खेत खाली छोड़ दिए। इससे खेती का संकट और गहरा आया है। चचावली गाँव से निकलते-निकलते, यहीं रहने वाले अशोक पटेल (31 वर्ष) ने कटेरिया गेहूं दिखाया। पटेल बुंदेलखंड के सबसे बड़े किसान संगठनों में से एक ‘बुंदेलखंड किसान पंचायत’ के ब्लॉक अध्यक्ष हैं। हाथ में हल्के काले रंग के गेहूं के कुछ दाने लेकर दिखाते हुए अशोक ने कहा, “यही है कटिया गेहूं। कुछ किलो खोज कर लाए हैं, इसकी दलिया बड़ी पौष्टिक होती है”।

भारत में दलहन क्रांति काे जन्म दे सकता है बुंदेलखंड

देश में हरित क्रांति के जनक डॉ. एमएस स्वामीनाथन ने ‘गाँव कनेक्शन’ को ई-मेल पर दिए गए साक्षात्कार में बुंदेलखंड की खेती की मुख्य समस्याओं और उपायों पर जानकारी दी। पेश हैं साक्षात्कार के अंश- 

बुंदेलखंड में मिट्टी के कटाव, वहां के पर्यावरण में आ रहे बदलाव, कम वर्षा और बारिश के पानी का खराब प्रबंधन जैसी कई समस्याएं हैं। किसानों को खेती के वैज्ञानिक तरीकों की जानकारी बिलकुल नहीं है इसीलिए वो क्षरण वाली भूमि पर अच्छी फसल नहीं ले पा रहे। सबसे बड़ी दिक्कत मिट्टी और पानी को सही ढंग से प्रबंधित करने की उन्नत तकनीकी का न होना है। अगर पशुओं के पोषण पर शोध करने वाले भारतीय ग्रासलैंड और चारा अनुसंधान संस्थान को छोड़ दें तो उसके अलावा बुंदेलखंड में अत्यंत कम शोध हुए हैं।

इसीलिए भारत सरकार ने बुंदेलखंड में कृषि विश्वविद्यालय खोलने की योजना बनाई है। आशा है कि आने वाला नया कृषि विश्वविद्यालय किसानों तक वैज्ञानिक ज्ञान पहुंचाने के साथ ही उनके खेतों में तकनीकी का इस्तेमाल कैसे हो, इस पर काम करेगा। फिलहाल बुंदेलखंड में वैज्ञानिक जानकारियों और केंद्रित शोध का बहुत बड़ा क्षेत्र रिक्त पड़ा है। दलहन और तिलहन अच्छे मुनाफे और कम पानी की आवश्यकता वाली फसलें हैं। इसलिए इनकी खेती बुंदेलखंड के किसानों को सबसे बढ़िया मुनाफा दिला सकती है। वर्ष 2016 विश्व दलहन वर्ष है और इसका फायदा उठाते हुए किसानों के बीच अरहर जैसी दाल की खेती को प्रचारित किया जाना चाहिए, जिससे मिट्टी को न सिर्फ नाइट्रोजन मिलेगा बल्कि उसमें कार्बनिक तत्व की मात्रा बढ़ेगी। असल में बुंदेलखंड भारत में दलहन क्रांति को जन्म दे सकता है।

बुंदेलखंड के लिए सुधार की नीतियां बनाने में वहां की क्षेत्रीय खेती का हाल और लोगों की सामाजिक-आर्थिक हालत को ध्यान में रखने बहुत ज़रूरी है। वहां के क्षेत्रीय किसान संगठनों को नीति बनाने में पूरी तरह शामिल किया जाना चाहिए। फिलहाल वहां अभी किसान से ज्यादा फसल कटाई के बाद की तकनीक व संसाधनों जैसे- भण्डारण, प्रसंस्करण, उत्पाद के लिए बाजार व उसका मूल्य बढ़ाने पर बल देना होगा।

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