आप के ध्यान में होगा समुद्र तट पर राम की सेना मायूस बैठी थी यह सोचते हुए कि कैसे पार करें समुद्र और पहुंचें लंका। तब जामवन्त ने हनुमान को याद दिलाया था कि उनमें शक्ति है उड़कर समुद्र पार करके लंका पहुंचने की। तब क्या था, उड़ चले पवन पुत्र हनुमान, खोज कर ली सीता की।
यही हालत बुन्देलखंड की है जहां गाँव कनेक्शन के जुझारू संवाददाताओं ने कई बार जोखिम उठाते हुए जानकारी इकट्ठा की है जामवंत की भूमिका निभाने के लिए, बुन्देलखंड की निहित शक्तियां बताने के लिए। हमारे खोजी पत्रकारों ने इस सीरीज़ के लेखों में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई है। गाँव कनेक्शन तो जामवंत का काम कर सकता है बाकी तो वैज्ञानिकों और सरकार को करना होगा।
बुन्देलखंड के दर्द को नौजवानों से बेहतर कोई नहीं महसूस कर सकता है जब सौरभ कहता है ‘‘गाँव में रखा ही क्या है” और वह पलायन का रास्ता अपनाता है। एक समय था जब पहाड़ से आए लड़के दुकानों पर या घरों में दिखाई देते थे, अब नहीं। पहले वे भी कहते थे यहां रखा क्या है। मैदानी शहरों से जब कोई पहाड़ पर जाता था तो लोग कहते थे मिल जाए तो कोई लड़का लेते आना घर के काम के लिए। अब उत्तराखंड की दुनिया बदल चुकी है और सौरभ के साथ अनेकों लड़के काम की तलाश में उत्तराखंड जा रहे हैं। उत्तराखंड की तरह बुन्देलखंड से भी पलायन की दिशा पलट सकती है यदि बुन्देलखंड को अलग राज्य बना दिया जाय।
यहां की 80 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है, मिट्टी अनुपजाऊ और पानी की अव्यवस्था है। इसमें नौजवानों के लिए कितने अवसर मिल सकेंगे? नौजवान सौरभ का दर्द छलकता है जब वह कहता है ‘‘खेती ने साथ छोड़ा तो कोई चारा नहीं बचा”। कोई चारा बचना चाहिए था यदि पूरा दांव खेती पर न लगा दिया होता। मुसीबत की घड़ी में पलायन सबसे सरल रास्ता लगता है। कभी बाहर जाकर मजदूरी करना, कभी डाकुओं का मुखबिर बनना और कभी खुद डाकू बन जाना यही तो भविष्य है बुन्देलखंड के नौवानों का। बुन्देलखंड का नौजवान इमानदारी का जीवन जीकर मुसीबतों से मुकाबला भी करना चाहे तो किसके बल पर। उसके पास कोई हुनर नहीं और पूंजी नहीं जो अपना काम शुरू कर सके अपने गांव में, वह पलायन अपनी खुशी से नहीं करता है।
इस इलाके में सूखा कोई नई बात नहीं है। यहीं के राजापुर के निवासी गोस्वामी तुलसी दास ने कहा था ‘‘कलि बारहिं बार दुकाल पड़ें’’ लेकिन यदि कुछ नया है तो किसान का लालच और सरकारों की बुद्धिहीन योजनाएं। बुन्देलखंड दाल और तेल का भंडार बन सकता था यदि उसके गले बौनी गेहूं की प्रजातियां न मढ़ दी गई होतीं। कृषि वैज्ञानिकों की नैतिक जिम्मेदारी थी कि दलहन और तिलहन की फसलों पर रिसर्च करते और सरकार को आगाह करते। मध्य प्रदेश में छत्तीसगढ़ को वहां का धान का कटोरा और मालवा को गेहूं का भंडार कहते हैं।
उत्तर प्रदेश में भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं और पूर्वांचल में धान होता है। मिट्टी का प्रकार और पानी को ध्यान में रखते हुए फसलों का चुनाव करना चाहिए था लेकिन बुन्देलखंड जहां बोरिंग पर प्रतिबंध होना चाहिए था बेतहाशा सिंचाई मांगने वाली बौनी प्रजातियां प्रचलित करके धरती को पंक्चर करा दिया वह भी मुफ्त बोरिंग। किसान जो बरसाती पानी का भरपूर उपयोग करके खरीफ की फसलों पर जोर देता था रबी के गेहूं में जुट गया। हजारों की संख्या में मौजूद तालाब पानी से भरे रह सकते हैं यह कुछ गाँवों के समझदार लोगों ने पानी संजोकर प्रमाणित किया है।
तालाब जो बुन्देलखंड की जीवन रेखा थे उन पर सरकारों का ध्यान ही नहीं गया। साथ ही अनुपजाऊ जमीन और पानी की कमी से जूझता हुआ किसान यदि नीलगाय से त्रस्त होकर दलहन की फसलें छोड़ रहा था तो सरकारों को चाहिए था नीलगाय का सफाया करना बजाय फसल चक्र बदलने के। यहां रबी और खरीफ दोनों ही फसलों में दलहन और तिलहन की खेती होती थी लेकिन सरकारों ने किसान की मदद करने के बजाय इनका आयात करना बेहतर समझा, जिसके साथ आयात हुए विविध रोग जिनसे निपटने का उपाय नहीं किया गया।
बुन्देलखंड में भूतलीय जल का प्रबन्धन सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इस पर खेती के साथ मत्स्य पालन भी निर्भर है। हजारों की संख्या में ग्राम पंचायतों के तालाब हैं और कुछ निजी तालाब भी हैं। हमारे रिपोर्टर्स ने आंकड़ों सहित बताया है कि मछली उत्पादन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ा है। किसान मछली पालन के लिए सरकारी तालाब पट्टे पर लेता है और खेती का लगान या माइनिंग का लीज़ रेन्ट की तरह पैसा देता है। यदि पांच साल के लिए पट्टे पर तालाब लिया था और दो साल से पानी ही नहीं बरसा तो भी उसे सरकार को पैसा देना ही होगा। जिन्होंने पट्टा नहीं लिया था और सूखे की आशंका देख पट्टा लेने का इरादा छोड़ दिया तो सरकार का नुकसान हुआ।
बुन्देलखंड और दूसरे ग्रामीण इलाकों के तालाबों की सफाई नहीं होती, जलधारक क्षमता घटती जा रही है और सूखा के दिनों में वाष्पीकरण की दर तेज होने के कारण ऐसे तालाब गर्मी के पहले ही सूख जाते हैं। जहां कहीं सम्भव हो छोटे तालाब आपस में जोड़कर यदि बड़े तालाब बनाए जा सकें, चेक डैम बनाकर बड़ी मात्रा में जल संचय हो और सालभर उस पानी की निगरानी होती रहे तो शायद संकट की घड़ी तक पानी बचा रहेगा। अच्छी बात यह है कि वहां की महिलाओं ने ‘‘जल सहेली” बनकर जल संग्रह, संरक्षण और उपयोग के लिए अभियान छेड़ दिया है। साथ ही सरकार ने ‘खेत तालाब’ जैसी योजना बनाकर जल संग्रह के विषय में सोचा है, इसके दूरगामी लाभ होंगे।
बुन्देलखंड के असली दुश्मन बन गए हैं बालू मौरंग के ठेकेदार जो नदियों से बेतरतीब खुदाई करके बालू मौरंग उठाते हैं। नदी मार्ग में जगह जगज पोखर जैसे गड्ढे बनते हैं जिनसे पानी का वाष्पीकरण तेज होता है, जल प्रवाह बाधित होता है। इसे इस प्रकार सोचिए यदि एक बाल्टी पानी पचास कटोरों में भरकर रख दिया जाय और दूसरी बाल्टी में उतना ही पानी रहे तो कटोरों का पानी पहले सूख जाएगा। नदियों से इस प्रकार छेड़-छाड़ करने से नदी का प्रवाह रुकता है, बालू चली जाने से नदी तल की सरन्ध्रता घटती है और वाष्पीकरण की सतह बढ़ती है। नदियों को परस्पर जोड़ना और जहां सम्भव हो जलाशय बनाना बेहतर विकल्प है। ड्रेजिंग समझ कर बेतरतीब प्रवाह बाधित करना बुद्धिमानी नहीं है।
यहां के पहाड़ों से बेतरतीब चट्टाने तोड़कर गिट्टी बनाने के लिए ठेकेदारों ने अवैध खनन करके पत्थर उठा लिए और बड़े-बड़े गड्ढे छोड़ दिए हैं जिनमें से कुछ में जल संचय की संम्भावना है। महोबा के कबरई गाँव के पास बना हुआ ऐसा ही गड्ढा देखने में भयावह लगता है, बंजर और वीरान। लेकिन इस अभिषाप को वरदान में बदला जा सकता है यदि इसके चारो ओर वृक्षारोपण करके इसे सुडौल आकार में लाकर फूल पत्ती लगाए जाएं और ऐसे ही दूसरे गड्ढों को परस्पर जोड़ दिया जाय तो न केवल जल संग्रह हो सकता है बल्कि यह रमणीक स्थान पर्यटन योग्य तक बन सकता है।
बुन्देलखंड की मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा काफी घट चुकी है और उसके साथ पाए जाने वाले राइज़ोबियम बैक्टीरिया की भी कमी आ गई है। पहले इस इलाके में दाल की फसलें बोई जाती थीं जिनकी जड़ों में राइज़ोबियम पाया जाता है। जब से गेहूं की फसल अपनाई है किसानों ने कार्बनिक तत्वों की कमी आने लगी। सच कहा जाय तो सरकार के दावों के बावजूद किसानों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पाया। उचित फसल चक्र और जैविक खाद का प्रयोग लाभकर होगा। उचित होगा कि खेती के साथ ही मछली और मुर्गी आदि का पालन आरम्भ हो जिससे एकमात्र खेती पर निर्भरता न रहे।
यहां की ज़मीन खेती के लिए उत्तम भले ही न हो लेकिन यहां चरागाह बनाकर पशुपालन और डेयरी उद्योग को बढ़ावा दिया जा सकता था लेकिन आजाद भारत में सरकारों ने इस दिशा में सोचा ही नहीं। यहां पर गेहूं धान के बजाय दलहन ओर तिलहन पैदा करना उपयुक्त है लेकिन उससे जानवरों के लिए चारा नहीं मिलेगा। जरूरी है कि चारा उत्पादन पर जोर देते हुए जानवरों को छुट्टा छोड़ने की परम्परा समाप्त कराई जाय। इससे खुरपका, मुंहपका, पोकनी जैसी बीमारियां आसानी से हो जाती हैं और टीकाकरण भी आसान नहीं होता। व्यवस्थित पशुपालन से जमीन को कार्बनिक रसायन मिलेंगे जो यहां की जमीन में बेहद कम है और गायों का दूध बढ़ेगा, खाद की उपलब्धता से ज़मीन की उर्वरा शक्ति स्वतः बढ़ जाएगी। मुफ्त में भूसा बांटने के बजाय चारा के बीज बांटे जाएं और चारा उत्पादन में सरकार सहयोग दे या प्रधानों को जिम्मेदारी दे। जानवरों को चारा, उनकी दवाइयां और प्रबन्धन की दिशा में काम करना ही होगा।
जरूरत इस बात की है कि खाली हाथों को काम मिले जिससे पलायन पर ब्रेक लगे। इसके लिए उद्योग लगाने होंगे जिन्हें चाहिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा जिसका उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में संकट है। वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में यहां सौर ऊर्जा का अधिकाधिक उपयोग आरम्भ हुआ है यह शुभ संकेत है। लेकिन ऐसी ऊर्जा के उत्पादन में लाभ-हानि की गणना और बैलेंस शीट तैयार की गई तो हतोत्साहित होंगे। जो उदाहरण सामने आए हैं उनमें जहां खेती के असफल होने से सौरभ पलायन कर गया वहीं जालौन में सौर ऊर्जा पार्क आने से जीतू का पलायन रुक गया। यह है रोजगार की सम्भावनाएं और बुन्देलखंड के लिए आशा की किरन।
खेती पर से जनसंख्या का दबाव घटाने का प्रमुख साधन है औद्योगीकरण लेकिन जब देश में उदारीकरण का दौर आरम्भ हुआ और उद्योग धंधो का लगना तेजी से शुरू हुआ तब भी पता नहीं क्यों सरकारों ने इस क्षेत्र के औद्योगीकरण का प्रयास ही नहीं किया। यहां सिलिका की बड़ी मात्रा में उपलब्ध है जिससे ग्लास बनता है। पढ़ा होगा फटिक शिला बैठे रघुराई वहीं है स्फटिक यानी सफेद सिलिका पत्थर। झांसी में इलेक्ट्रानिक सामान और जहां लाइमस्टोन मिलता है वहां सीमेन्ट कारखाने लग सकते हैं। कुटीर उद्योगों की भी सम्भावना है टैल्क, डायस्पोर जैसे खनिजों से स्थानीय स्तर पर खनिज आधारित उद्योग लगाए जा सकते हैं।
उद्योगपतियों से चर्चा करने की आवश्यकता है कि वे इस क्षेत्र में पूंजी क्यों नहीं लगाते जहां सस्ते मजदूर और कच्चा माल उपलब्ध है। संकोच का एक कारण है उनके जान माल की सुरक्षा और बने माल के लिए बाजार। आवागमन के लिए सड़कों की कमी है और सीमेन्ट जैसे सामान को ढोने के लिए रेलवे का होना जरूरी है। फिल्म उद्योग में शूटिंग के लिए नैसर्गिक वातावरण है। कोई सरकार एक बार हिम्मत करके एक बड़ा जलाशय और पर्यटन स्थल बना दे तो अन्तर पड़ेगा। इस सब से अधिक जरूरी है अन्य पिछड़े क्षेत्रों जैसे उत्तराखंड को दी जाने वाल सुविधाओं को मुहैया कराना जैसे जमीन, टैक्स माफी आदि।
खेती का अच्छा विकल्प है पर्यटन जिसकी बदौलत सिंगापुर जैसे देश विदेशों में और कश्मीर और उत्तराखंड जैसे क्षेत्र हमारे देश में सुख से रहते रहे हैं। बुन्देलखंड में खजुराहो, चित्रकूट, झांसी और कलिंजर किला के विषय में तो लोग कुछ भले ही जानते हों बाकी दर्जनों पर्यटन स्थल हैं जिनके विषय में जानकारी बांटी नहीं जाती। बुन्देलखंड आने की योजना बना रहे पर्यटक के आंखों के सामने खूंखार डाकू की तसवीर आ जाती है। आतंकवादियों ने कश्मीर टूरिज़्म को जितना तबाह किया है उतना ही बर्बाद किया है बुन्देलखंड टूरिज़्म को डाकुओं ने। ये लोग उन गरीबों की रोजी-रोटी छीन रहे हैं जो पर्यटकों से स्थानीय लोगों को मिल सकती है।
चित्रकूट के इलाके में यदि पर्यटन को विकसित करना है तो राम मन्दिर का जाप करने वालों को राम वन गमन का मार्ग खोजकर उसे विकसित करना चाहिए, जगह-जगह पर जहां राम रुके थे विश्रामस्थल बनवाए जायं जिससे आध्यात्मिक पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, विदेशी पर्यटक भी आएंगे। बुन्देलखंड में शौर्य पर्यटन को बढ़ावा देकर झांसी जैसे स्थान पर बड़ा क्षेत्रीय म्यूज़ियम बनाकर राजा बुन्देला जैसे लोगों को उसमें ऐतिहासिक फिल्में दिखाने, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक सामग्री दिखाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं जैसी एक समय हैदराबाद के सालारजंग म्यूज़ियम में थी। बुन्देलखंड का स्वाभिमान जगाना होगा लेकिन उससे पहले अराजक तत्वों को समाप्त करना होगा।
अकेला पर्यटन बुन्देलखंड को भोजन दे सकता है। बुन्देलखंड जहां वीरों और वीरांगनाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है वहीं आजाद भारत में डाकुओं के आतंक के लिए बदनाम रहा है। लोग डाकू बने ही क्यों यह रिसर्च का विषय है लेकिन सभी का जातीय आधार रहा है और अधिकांश पिछड़ी जातियों से आए थे। कभी बदला लेने के लिए, कभी गाँव में दबंग बनने और कभी बेहतर जिन्दगी के अभाव में। डाकू राजनेता बन गए हैं अपनी अपनी जातियों की ताकत पर, समर्थन पाते है और जिसे चाहें जिताएं जिसे चाहें हराएं। गाँव वाले खुद भले ही भूखे रह जाएं डाकुओं को राशन पानी जरूर पहुंचाते हैं। गांव वालों के पास जीने का दूसरा उपाय भी तो नहीं है। नेताओं की सन्ताने नेता बनती हैं जरूरी नहीं कि डाकुओं की सन्तानें डाकू बनें, वे नेता बनते हैं एमएलए, एमपी, प्रधान और पंच बनते हैं।
हमारी कठिनाई यह है कि दफ्तर में बैठा हुआ बाबू और सड़क पर भाषण देता राजनेता अपने को सबसे विद्वान समझते हैं। भूवैज्ञानिक की बिना सलाह माइनिंग शुरू कर देते हैं, मिट्टी की जांच कराए बिना और पानी की उपलब्धता पर बिना विचार किए फसलों का फैसला कर लेते हैं बीज मुहैया करा देते हैं। किसान सब्सिडी के लालच में और देखा-देखी वही बीज बोने लगता है। उन्होंने उद्योगपतियों से पूछने की ज़हमत नहीं उठाई होगी कि वे यहां उद्योग क्यों नहीं लगा रहे हैं। इतिहासकारों से पूछने का कष्ट नहीं करेंगे कि क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्व की जगहों का महत्व क्या है। यह पूछें या न पूछें, राजनेताओं को यह पता होना चाहिए कि जिन डाकुओं और ठेकेदारों को वे पालते हैं अपनी मदद के लिए वे इलाके को बर्बाद करते हैं, जो बचा है वह भी नहीं बचेगा। सब की जड़ में है कानून व्यवस्था का अभाव।