लखनऊ| मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 9 नवम्बर को कैबिनेट मीटिंग फैसला किया कि दलितों को पट्टे की जमीन पर अब मालिकाना हक मिलेगा।
पुराने अधिनियम के अनुसार आज तक दलितों को पट्टे पर ही ज़मीन दी जाती थी। इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद अब दलितों को अपनी जमीन पर मालिकाना हक मिल सकेगा, जिसके बाद ज़मीन बेचने का उनके आगे का सबसे बड़ा रोड़ा हट जायेगा। यानी वे अपनी जमीन किसी को भी बेच सकेंगे।
दरअसल ‘उप्र जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950’ की धारा 157 (क) के अनुसार अनुसूचित जाति/जनजाति का व्यक्ति यदि अपनी ज़मीन किसी सवर्ण को बेचता है, तो जिलाधिकारी की पूर्वानुमति के साथ-साथ विक्रेता के पास न्यूनतम 3.125 एकड़ ज़मीन भी शेष बचे।
देश की कृषि जनगणना 2010-11 के अनुसार उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग 02 लाख 48 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन पर खेती करते हैं। इनमें से भी 81.49 प्रतिशत छोटे व मंझोले भूमिधरों की श्रेणी में आते हैं। इनके द्वारा 3.125 एकड़ न्यूनतम ज़मीन की बाध्यता बरकरार रख पाना संभव नहीं।
इसके लिए ‘उप्र जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950’ की धारा 157 (क) में संशोधन करने का प्रस्ताव पहले भी पेश किया था, जो पास नहीं हो सका था|
”दलितों के हितों की रक्षा के लिए नियम था, पर ऐसा नहीं है कि अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों की ज़मीनों की खरीद-फरोख़्त रुक गई हो। बल्कि हुआ यह कि बिचौलियों और अधिकारियों का नेक्सस शुरू हो गया, जिससे बेचने वाले को मोटी घूस-कमीशन देनी पड़ती,” राजस्व मामलों के जानकार वकील स्वतंत्र सिंह ने बताया।
अनुसूचित जाति/जनजाति के कम ही लोगों के पास इतनी ज़मीन होती है कि बेचने के बाद भी न्यूनतम ज़मीन बच पाए। ऐसे में जिसके पास कम ज़मीन है वो मजबूरी में पहले कागजों पर किसी अनुसूचित जाति के ही व्यक्ति को अपनी भूमि बेचता है। खरीदने वाले अनुसूचित जाति के व्यक्ति के पास जब 3.125 एकड़ से ज्यादा भूमि हो जाती है, तब वो जिलाधिकारी की अनुमति लेकर सवर्ण को भूमि बेचता है।
यानी ज़मीन के एक छोटे टुकड़े को बेचने के लिए दो बार बैनामा किया जाता है। एक अतिरिक्त बैनामे का हवाला देकर गर्ज दिखाकर खरीददार अनुसूचित जाति/जनजाति के मूल विक्रेता को ज़मीन की बहुत कम कीमत देता है।
दलितों के व्यावसायिक और सामाजिक हितों को लेकर मुखर भारतीय दलित वाणिज्य एवं उद्योग चेम्बर के सलाहकार चंद्रभान प्रसाद ने भी इस फैसले का स्वागत किया। गाँव कनेक्शन से बातचीत में उन्होंने कहा, ”यह अच्छा बदलाव है। दलितों की ज़मीन की कीमत बहुत कम लगती रही है। पुराना नियम पहले के लिए ठीक था, अब तो इसका उलटा असर होने लगा है। मेरे हिसाब से तो डीएम के फैसले की बाध्यता भी ज़रूरी नहीं थी, झंझट ही बढ़ेगा। लेकिन चलिए हितों को ध्यान में रखते हुए डीएम अनुमति फिर भी ठीक लगती है”।
”मान लीजिए एक दलित परिवार के दो भाईयों में ज़मीन बंटी है। टुकड़े होने से ज़मीन पर वैसे भी कुछ नहीं हो सकता, तो उसे बेचकर शहर में बसना चाहते हैं, लेकिन नियम के चलते नहीं बेच पा रहे थे, बेचते भी तो बहुत कम कीमत मिलती। अब कम से कम वो ज़मीन गाँव की बाकी ज़मीन के दामों पर ही बेचेंगे और उसके पैसों से कुछ कर पाएंगे”, चंद्रभान ने कहा।