लखनऊ (उत्तर प्रदेश)। राजधानी लखनऊ आज के कई साल पहले तक अपने चिकन की कारीगरी के अलावा किसी और के लिए भी मशहूर थी, वो था चिनहट का मशहूर पॉटरी उद्योग। फैक्ट्री बंद होने के बाद लोगों के सामने रोजगार का संकट आ गया, कई लोग दूसरे शहरों में वले गए और कई ने अपना व्यापार ही बदल लिया।
कुछ साल पहले तक यहां के चीनी मिट्टी के बर्तन दूर-दूर तक मशहूर थे, मुंबई-कलकत्ता शहरों से ही नहीं विदेश के भी व्यापारी यहां सामान खरीदने आते थे, लेकिन अब यहां पर बचे हैं सिर्फ खंडहर और गेट पर लगा ताला।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के चिनहट अपने पॉटरी उद्योग के लिए जाना जाता था, यहां के दर्जनों घरों में चीनी मिट्टी का काम होता था। यही नहीं इसकी बिक्री के लिए पॉटरी उद्योग बिक्री केंद्र की भी शुरूआत की गई थी। अब भी बिक्री केंद्र पर चीनी मिट्टी के सामान मिल तो जाएंगे लेकिन वो दूसरी जगह से मंगाए हुए।
पॉटरी उद्योग बिक्री केंद्र के संचालक यहां पर शुरूआत से हैं, लेकिन चिनहट में सामान न बनने से परेशान तो हैं, लेकिन बिक्री केंद्र नहीं बंद करना चाहते हैं। वो बताते हैं, “फैक्ट्री बनने का काम साल 1958 में शुरू हो गया था, उसके बाद 1963 के बाद काम शुरू हुआ, कई सालों तक तो बहुत अच्छा काम भी चला। इतना अच्छा सामान बनता था कि इंडिया तो इंडिया, इंडिया के बाहर के लोग भी आते थे और बराबर ग्राहक आते थे, बांबे, बैंग्लौर, हैदराबाद, अमृतसर, दिल्ली हर जगह से ग्राहक आने लगे थे, अच्छी खासी सेल होती थी, प्रोडक्शन भी अच्छा होता था।”
वो आगे बताते हैं, “लेकिन कारखाने के बंद होने के बाद हम ये केंद्र बंद नहीं करना चाहते, अभी हम खुर्जा से सामान मंगाते हैं, क्योंकि अभी भी लोग चिनहट के नाम पर सामान खरीदने आते हैं, अगर ये भी बंद हो गया तो लोगों का आना भी बंद हो जाएगा।
1997 में उप्र लघु उद्योग विकास निगम ने घाटे का हवाला देते हुए गेट में ताला लग गया है अभी भी कारखाने का खंडहर बचा हुआ है और गेट पर ताला लगा हुआ।
कुछ ऐसे भी कारीगर और व्यापारी हैं जिन्होंने पॉटरी का काम तो बंद कर दिया, लेकिन दूसरे कामों में लग गए। टेराकोटा का काम करने वाले सोमेंद्र बनर्जी बताते हैं, “हमारे यहां 55 साल से यही काम हो रहा है, पहले हमारे फादर देखते थे, लेकिन अब मैं देखता हूं। पंद्रह साल पहले जब मटेरियल मिलना बंद हो गया तो हमने सेरामिक का काम बंद कर दिया और हम टेराकोटा के काम पर आ गए। ये भी सही ही चल रहा है।”
1970 में विकास अंवेषण एवं प्रयोग विभाग ने उप्र लघु उद्योग विकास निगम को पॉटरी उद्योग के विकास की जिम्मेदारी दी थी। परिसर में 11 इकाइयों में 400 से अधिक कारीगर हर दिन काम करके अपनी रोजी रोटी का इंतजाम करते थे। कभी लघु उद्योगों के गढ़ के रूप में प्रचलित इस इलाके में धधकती भट्ठियों से निकलने वाला धुआ पिछले कई दशकों से बंद हो चुका है।
यहां पर बिहार से कई साल पहले सुनील सिंह और उनका परिवार यहां सेरामिक का काम करने आए थे। कई साल तक काम अच्छा चला लेकिन अब टेराकोटा और प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियां बनाते और बेचते हैं। वो कहते हैं, “कच्चा माल ने मिलने के कारण ये फैक्ट्री बंद हो गई, पहले यहां कई घरों में काम होता था, बहुत दूर-दूर से लोग आते थे, लेकिन अब रोजी-रोटी चलाने के लिए टेराकोटा का काम शुरू किया है अब कुछ तो करना ही पड़ेगा।”