नमस्कार, किसान भाइयों
मैं अपने खेतों में एक हजार कुंटल प्रति एकड़ गन्ने की पैदावार लेता हूं, लेकिन ये इतना आसान नहीं था। क्योंकि पहले हम लोग परंपरागत तरीकों से खेती करते थे। दो तीन फीट पर गन्ना बोते थे। उस दौरान एक एकड़ की बुआई में करीब तीन टन गन्ना लगता था। जो गन्ना मिला बो दिया। न तो हम बीजोपचार करते थे और न ही बीच का लिए अलग से गन्ना लगाते थे। कई किसान तो जड़ी (पेड़ी दोबारा, तिबारा) वाला गन्ना बो देते थे। लेकिन आज 3-4 टन गन्ने में हम लोग 5 एकड़ बुआई करते हैं। पिछले साल मैंने तीन टन गन्ने में 7 एकड का प्लांटेशन किया था, जिसमे 6 फीट की नाली में प्लांटेशन किया था और आंख से आंख से दूरी 2.5 ढाई फीट रखी थी। कई किसान तो दो दो लाइन में गन्ना बोते हैं, लेकिन ज्यादा बुआई से अच्छा उत्पादन नहीं होता। ज्यादा घनी बुआई से गन्ना की बाढ़ पर असर पड़ता है।
दूसरी समस्या है, हम लोग खाद को ऊपर से फेंकते हैं। एक मजदूर 1 एकड़ की खाद एक घंटे में फेंक आते थे। लेकिन अब मैं गन्ने के बीच नालियां खोदकर उसमे खाद डालवाता हूं फिर उसे ढक देता हूं, यही मिट्टी पौधों की जड़ों पर चढ़ाता हूं, जिससे पौधो को पूरी खाद मिलती है। हालांकि इसमें एक की जगह 5 मजदूर लगते हैं। पहले यूरिया सस्ती होने के कारण वहीं फेंकते थे अब एनपीके का इस्तेमाल होता है। मैं खाद का संतुलित और सही समय पर देता हूं।
कुछ साल पहले तक हमारे यहां किसान ज्यादातर रात को पानी लगाते थे, और बिना समझे पूरा खेत भर देते थे, जबकि इतने पानी की आवश्यकता नहीं होती। उस समय आडसाली गन्ने का औसत 50 से 60 टन तक आने के कारण जड़ी के गन्ने का औसत 30 से 35 टन तक सीमित था। उस समय हमारे पिताश्री का एक ख्वाब होता था। जिन्दगी में एक बार तो मुझे 1000 टन गन्ना निकालना है। लेकिन वो उस लक्ष्य तक कभी भी नहीं जा सके। इस सपने को पूरा करने के लिए उऩ्होंने पूरे 30 एकड़ में गन्ना बो दिया। लेकिन उस वक्त सिर्फ 956 टन गन्ना हुआ।
उस समय आडसाली गन्ने का औसत 50 से 60 टन तक आने के कारण जड़ी के गन्ने का औसत 30 से 35 टन तक सीमित था। उस समय हमारे पिताश्री का एक ख्वाब होता था। जिन्दगी में एक बार तो मुझे 1000 टन गन्ना निकालना है। लेकिन वो उस लक्ष्य तक कभी भी नहीं जा सके। इस सपने को पूरा करने के लिए उऩ्होंने पूरे 30 एकड़ में गन्ना बो दिया। लेकिन उस वक्त सिर्फ 956 टन गन्ना हुआ।
मैंने फिर खेती की बारीकियां समझी और बदलाव किए। 2-3 फीट की जगह बुआई के लिए साढ़े तीन फीट की नालियां बनवाईं। ढौंचा जैसा हरी खाद का इस्तेमाल किया। तब बैलों की सहायता से नालियां बनवाई और उनकी जुताई करवाई। आंख से आंख की दूरी भी डेढ़ फीट कर दी थी। खाद देने के तरीका बदला। जैविक और घरेलू खाद के साथ रसायनों का इस्तेमाल किया। तीन बार माइक्रोन्यूट्रेंशन दिए। और उचित पानी, जिसके चलते उसी साल हमारी खेती का औसत 70-75 टन तक पहुंच गया। ये मेरे लिए हौसला बढ़ाने वाली बात थी। हम सीधे 50-60 से 70-75 टन तक पहुंचे थे। इसी तरीके को आगे बढ़ाया लेकिन कुछ साल तक पैदावार 75 टन टन प्रति एकड़ पर सिमट गई।
मुझे फिर लगा 100 टन का सपना पूरा नहीं होगा, थोड़ी हताशा हो रही थी, लेकिन मैं लगा रहा। 2005-06 में पहली बार मैं गन्नों के बीच की दूरी और बढ़ाई इस बार साढ़े चार फीट पर (86032 किस्म) की बुआई की। और आंख से आंख की दूरी रखी 2 फीट। मैंने बुआई भी 26 जुलाई को कर दी। इस बार मैंने खेत और दमदार बनाया था और बीज भी अपने खेत का था। यूं समझिए वो बीच मैंने बिल्कुल शास्त्रीय शुद्ध तरीके से बनाया था। बाकायदा चार्ट बनाया था कब कौन सी खाद देनी है और कब पानी लगाना है। इस बार मैने गन्ने से छह महीने के सात बाद खाद दी, जो पहले चार बार थी, यूरिया भी सादा देने के बजाए बुआई के पहले नीम कोटिंग की। जिसके कारण यूरिया का जो नत्र धीरे-धीरे गन्ने को मिलता रहा।
मैंने फिर खेती की बारीकियां समझी और बदलाव किए। 2-3 फीट की जगह बुआई के लिए साढ़े तीन फीट की नालियां बनवाईं। ढौंचा जैसा हरी खाद का इस्तेमाल किया। आंख से आंख की दूरी भी डेढ़ फीट कर दी थी। खाद देने के तरीका बदला। जैविक और घरेलू खाद के साथ रसायनों का इस्तेमाल किया। तीन बार माइक्रोन्यूट्रेंशन दिए। और उचित पानी, जिसके चलते उसी साल हमारी खेती का औसत 70-75 टन तक पहुंच गया। ये मेरे लिए हौसला बढ़ाने वाली बात थी।
साथ ही स्प्रे का शेड्यूल बनाया। माइक्रो न्यूटंन्स का 30 दिन, 60 और 90 दिन छिड़काव किया, साथ ही 19/19/19, 12/61/0, 0/0/50 आदि फोलियर खाद दिया। इसी वर्ष मैंने पहली बार जैविक खाद का भी इस्तेमाल किया था। जिसमे एजेक्टोबैक्टर और पीएसबी यानि पोटाश के जीवाणु का उपयोग ड्रीचिंग के लिए किया। जो 35 दिन में, 50 दिन में, 65दिन में, 80दिन में ड्रीचिंग किया। ड्रीचिंग करते समय सुबह पानी देने के बाद शाम को 4 बजे से आगे ड्रीचिंग दिया। शाम को ड्रीचिंग देने से जीवाणु का काऊंट भी ज्यादा बढता है। इसके सिवा माइक्रो न्यूट्रेनंस का पहली बार इस्तेमाल किया। जिसमें फेरस सल्फेट- 10 किलो, जिंक सल्फेट 10 किलो, सल्फर 10 किलो, 25 किलो मैग्नेशियम, 5 किलो मैग्नीज और 3 किलो बोरॉन ये सभी 250 किलो गोबर के खाद में मिला के 7 दिन तक रख दिया और फिर खाद के रुप में इस्तेमाल किया, सबका बहुत अच्छा रिजल्ट मिला।
गन्ने के पत्ती दो बार निकाल दिए। पहली बार 165 दिन में पत्ती निकाली। और जो खुली नाली थी उस नाली में दोनों बगल में कुदाली से नाली निकाल के 2 बोरी 12/32/16 और 1 बैग यूरिया दी। और दूसरी बार 225 दिन में और एक बार पत्ती निकाल दिया।
मन में उम्मीद की किरण जग रही थी। इस खेत की नवंबर-दिसंबर 2006-7 में कटाई की तो गन्ना काफी लंबा था। पेड़ी के गन्ने की लंबाई 18-19 फीट तक थी। इस दौरान 86032 किस्म के गन्नों क् वजन 30 किलो, 265 किस्म में एक गन्ने का वजन साढ़े पांच किलो तक मिला। गन्ने की कटाई करके फिर उस गन्ने को बांडी से बांधते हैं, जिसे हम मराठी में मोली कहते हैं। मोली को रखने के लिए जगह नही मिल रही थी, जिसके कारण मोली के उपर मोली रखना पड़ा रही थी। तो मैंने उसके लिए बुआई में जगह और बढ़ा दी। ज्यादा खुली जगह मिलने से पेड़ पर पूरी तरह हवा और सूरज की रोशनी पहुंची। उस साल कुल मेरा औसत 993 कुंटल प्रति एकड़ पहुंच गया था। 100 टन निकालने का मेरा सपना पूरा हो गया था। उसके बाद तो मैंने आज तक पीछे मुड़ कर नहीं देखा। फिर 2008/9 में 11 एकड़ में 1125 टन, 2009/10 में 5 एकड़ में 505 टन, 2010/11 में 7.5 एकड में 755 टन, 2011/12 में 9.5 एकड़ में 1006 टन, 2012/13 हमारा उत्पादन बढ़ता रहा। 2015 के बाद मैंने 5 फीट की नाली में गन्ना बोया तो भी उत्पादन कम नहीं हुआ। अभी प्रयोग के तौर पर एक खेत में छह गुणा तीन और छह गुणा चार फीट पर बुआई की है। मुझे उम्मीद है आने वाले कुछ वर्षों में 6 गुणा 5 पर भी इतना ही उत्पादन होगा। इस वर्ष मैंने बीज बेचकर एक एकड़ से 2 लाख 80 हजार रुपये कमाए
अपनी सफलता का श्रेय में वीएसाई के वैज्ञानिक सुरेन माने, साथ ही मुझे बीए स्प्रे सलाह देने वाले डॉ. बालकृष्ण जमदग्नि और उन तमाम किसान भाइयों को भी धन्यवाद दूंगा तो मेरे लिए प्रेरणास्त्रोत बने। साथ ही एक मेरे गांव के प्रगतिशील किसान संजीव माने का भी धन्यवाद जिन्होंने 1998 में एक एकड़ में 100 टन गन्ना निकाला था
आपका
सुरेश कबाडे